जीवन जीने की सोलह कलायें...

किसी भी कार्य को करने का एक समय और ढंग होता है ! दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि हर एक कार्य को करना भी एक कला है ! फिर उस कार्य के लिए उचित स्थान,अनुकूल अवसर और सूझ-बूझ की आवश्यकता होती है ! ये रंग-ढंग, व्यवस्था और रूप रेखा उसकी कला में शामिल हैं !

                         🔆 जैसे कोई चित्रकार  को चित्र बनाते हुए पता है कि कौन सा रंग कहाँ लगाना है, आंख, कान और हाव-भावों को किस प्रकार दिखाना है ! और एक नट दो बाँसों की बीच रस्सी बाँधकर अपना सन्तुलन कायम रखता है ! यदि अपना सन्तुलन खो देता है तो उसका नुकसान होता है ! इसी प्रकार जीवन को सन्तुलन रखना भी एक कला है ! वरना कदम-कदम पर मुश्किलों का सामना करना पड़ता है !

                          👪 मनुष्य अपने बाल-बच्चों के बीच रहे और उनके प्रति स्नेह भी हो परन्तु मोह न हो, वह धन कमाये परन्तु लोभ न हो , वह घर-गृहस्थ को चलाये परन्तु उसमें आसक्त्ति न हो ! वह साधन भी प्रयोग करे लेकिन उनके बिना जीवन मुश्किल न लगे ! इसलिए जीवन को भी एक 'कला' कहा जाता है !
             
                          मनुष्य को कार्य-व्यवहार को सुन्दर बनाने और जीवन को एक रंग-ढंग से चलाने वाला विज्ञान वास्तव में योग ही है ! देखा गया कि जीवन को सफल अथवा श्रेष्ठ बनाने के लिए मुख्य रूप में सोलह कलायें हैं ! योग मनुष्य को सोलह कलाओं से सम्पन बनाता है ! वे सोलह कलायें कौन-कौन सी हैं और योग मनुष्य को उन कलाओं में कैसे प्रवीण बनाता है, उन सोलह कलाओं को हम एक एक कला का वर्णन करगें !


📔  *जीवन में सोलह कलाओं द्वारा* 📔

👑🤴👑 *देव पद की प्राप्ति*👑🤴👑

📔📔 *DEITY STATUS THROUGH SIXTEEN CELESTIAL DEGREES*



प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्व् विद्यालय में चार विषयों को पढ़ाया जाता है- ज्ञान, योग,धारणा व् सेवा। इन। चारों का केंद्र बिंदु है इस ईश्वरीय विश्व विद्यालय के साकार संस्थापक पिताश्री ब्रम्हा बाबा का जीवन वृत। अतः यदि हम ब्रम्हा बाबा की जीवन कहानी को अपने जीवन में उतारे तो शीघ्र ही सोलह कला संपूर्ण बन सकते है।ब्रम्हा बाबा के जीवन की विशेषताओं को निम्नलिखित 16 कलाओं के रूप में दर्शाया जा सकता हैं--

1. निश्चिंत रहने की कला ( Art of Relaxation) - इस निश्चय में रहने से कि " करन करावनहार परमात्मा है, हम तो निमित्त है" हम सदा निश्चिंत रह सकते हैं। बीती का चिंतन न करे, बीमारी में भी यह समझकर संतुष्ट रहे की यह कर्मो का हिसाब- किताब हैं, पूर्व निश्चित सृष्टि नाटक के प्रत्येक दृश्य को सामने रख हर स्थिति में एक रस रहे। सागर में शेष शैय्या पर विष्णु का चित्र निश्चिन्त रहने का ही प्रतिक है।

2. व्यवहार करने की कला ( Art of Dealing or Behaviour) - हमारा व्यवहार ऐसा हो जिसमे सर्व के प्रति सहज आदर, स्नेह, निःस्वार्थ भावना व् मधुरता भरी हो। ऐसा व्यक्ति सहज सबके ऋदय को जीत कर उस पार राज्य करता रहता है। कहा जाता है की सुन्दर वह है जिसका व्यवहार सुंदर है ( Handsome is that who handsome does)

3. स्वस्थ रहने की कला ( Art of keeping healthy) - स्वस्थ अर्थार्त - स्व ( आत्मा) + अस्थ ( स्थिति), अर्थात आत्मिक स्थिति में रहकर हर कर्म करते रहना ही स्वस्थता है। सदा अपने को बेगमपुर के बादशाह समझ खुश रहे क्योंकि ख़ुशी जैसी खुराक नहीं है। स्वच्छ जल, ताजा ( fresh) भोजन व् ताज़ी हवा अच्छे स्वास्थ में बहोत महत्व रखती है। बाबा कहते - स्वास्थ के लिए दवा के साथ - साथ सबकी दुआएँ भी लेते रहो। ड्रामा के गहन राज को समझकर सदा हर परिस्थिति में प्रसन्न रहना ही स्वस्थ रहने की कला है।

4. पढ़ाने की कला ( Art of Teaching)- आदि पिता ब्रम्हा बाबा अपनी चलन, स्नेहमयी, रूहानी दृष्टी,वृति व् व्यव्हार से सबको अपनत्व का पाठ पढ़ाते थे। पढ़ाई की कला का सार है प्रेमपूर्वक व्यवहार। संत कबीर दास ने भी मार्मिक शब्दों में कहा है-
           " पौथी पढ़- पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
          ढ़ाई अक्षर प्रेम का, पढे सो पंडित होय।"
         यद्यपि इस शिक्षा में अनेक विषय है पर बाबा ऐसे पढ़ाते जो लगता था कि एक ही विषय पढ़ा रहे है और कहानी की तौर पर पढ़ा रहे हैं। विद्यार्थी और शिक्षक के बीच घनिष्टता होती थी।किसी को शिक्षा देनी होती तो अलग व्यक्तिगत रीती से देते थे और महिमा करनी होती तो सर्व के सम्मुख करते थे, जिससे उसका स्वाभिमान बना रहता था और वह स्वयं को बदल लेता था। श्रीकृष्ण का रथ में अर्जुन को शिक्षा देना पढ़ाने की कला का ही एक प्रतिक है।

5. पत्र लिखने की कला (art of letter writing) - बाबा के पत्र जीवन में उत्साह पैदा करने वाले होते हैं ।बाबा कोई को भी किसी कमी की और ध्यान खिंचवाते तो व पहले उसकी प्रशंन्सा करते थे , फिर अच्छे ढंग से समझाते जिससे उसे आत्मग्लानि महसूस न हो । बाबा के पत्रों को बार - बार पढ़ने की इच्छा होती थी ।बाबा पत्रों से ही अपना बना लेते थे , पत्र पढ़ कर ही आत्मा न्यौछाबर हो जाती थी ।

6. पालना करने की कला (Tha art of Sustenance ) - जैसे माँ अपने बच्चों को बड़े प्यार , त्याग , सेवा भाव और अथकपन से पालना करती है ,ऐसे ही बाबा कहते थे कि प्रदर्शनी , मेला या अन्य कोई सेवा करते रुको नही , उसकी पीठ करो तब फल निकलेगा । यदि कोई जिज्ञासु किसी कारण  से नही आता है तो उसे मुरली भेजो , पत्र भेजो , टोली( प्रसाद ) भेजो या कोई न कोई कार्य दे दो तो वह  सम्पर्क में आता रहेगा ।

7. आगे बढ़ने की कला (Art of Marching Ahead ) - जीवन में लक्ष्य सदा महान हो और उस लक्ष्य को पाने के लिए सदा पुरुषार्थी रहें । चाहे जितनी भी परीक्षाएं आएं फिर भी सदा आगे बढ़ते रहें । हमारा आगे बढ़ना , दूसरों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बन जाता है ।

8.हास्य कला ( Art of Entertainment ) - ज्ञान के बीच-बीच में बाबा हँसाते - बहलाते भी थे । ज्ञान के अनेक गुह्य राजों को बाबा हँसी - हँसी बहुत सहज कर स्पष्ट कर दिया करते थे । प्रतिकूल परिस्थितियों को भी बाबा ने बहुत ख़ुशी - ख़ुशी सर पार किया ।बाबा बच्चों को खूब हंसाते - बहलाते रहते थे , वे कहते थे कि सदा फूलों की तरह मुस्कराते रहो ।

9.मधुर बोलने की कला (Art of sweet taking ) - कहावत है कि जुबान ही मनुष्य को तख्त ( throne ) दिलाती है या यह ही  उसे  तख्ते ( Gallows ) पर चढ़ाती है । मीठी वाणी से मनुष्य अनेक विकट परिस्थितियों को पार कर जाता है । आत्मभिमानी स्थिति से म

नुष्य के मुख से स्वतः ही मीठे बोल निकलते हैं ।कवि ने सत्य ही कहा है -
    " मधुर वचन है औषधि , कटु वचन है  तीर ।
       श्रवण द्वार है संचरी ,घाले सकल शरीर ।।"

10.अपना बनाने की कला ( Art of making one's own ) - बाबा बच्चों की महिमा करके उनमें इतना आत्मविश्वास पैदा कर देते थे कि उनके गुणों का विकास होने लगता था तथा व कमाल करके दिखाते थे । बाबा निराश आत्माओं में भी आशा उत्पन्न कर देते थे । वह  सभी का दिल ऐसे जीत लेते कि उनकी बाबा से दूर रहने या जाने की इच्छा ही  नहीं होती थी ।बाबा से मिलकर सब बहुत ही हल्का महसूस करते थे ।

11. नेतृत्व कला ( Tha Art of Leadership ) - नेता का कार्य होता है जन - समुदाय को जागृत करके आगे बढ़ाना । बाबा ने ऐसा काम किया जो हरेक पुरुषार्थी लीडर या टीचर बन गया । बाबा सभी को उनकी विशेषता के अनुसार व्यस्त (Busy ) कर देते थे ।  बुद्धि जब रचनात्मक कार्य में लग जाती है तो संहारात्मक कार्य समाप्त हो जाते हैं । जैसे पत्थर पानी की लहरों से पूजने योग्य हो जाता है वैसे ही यहाँ दूसरों की सेवा करते - करते लायक बन जाते हैं । हरेक को बाबा ने उनकी योग्यता वा रूचि अनुसार काम देकर आगे बढ़ा दिया ।

12. - सीखने की कला (The Art of Learning ) - सीखना अर्थात जीवन में परिवर्तन । ब्रह्मा बाबा इतनी आयु होने बावजूद भी सदा यही समझते कि में विद्यार्थी हूँ , इसी मनोवर्ति ने उनको उच्चता के शिखर पर पहुँचा दिया । सीखने के लिए जिज्ञासा चाहिए । बाबा पढ़ाई के महत्व को बताते हुए कहते कि बच्चे ! जिसको मुरली से प्यार है माना मुरलीधर से प्यार है , अतः मुरली (पढ़ाई ) कभी भी नही छोड़ो । इसी तरह बाबा बूढ़ों को भी जब बच्चे - बच्चे कहते तो उनमें पढ़ाई के प्रति सतर्कता ( Alertness ) आ जाती है ।

13. - परिवर्तन करने की कला (The Art of Transformation or Moulding ) - बाबा कहते  की एक बात समझ लेने के बाद की स्वधर्म क्या है , स्वलक्षण क्या है , इस अनुसार स्वयंम को परिवर्तित करना ही मोल्ड होना है । ब्रह्मा बाबा के जीवन में यही परिवर्तन देखा गया । जिस दिन साक्षात्कार हुआ ' अहम् चतुर्भुज तत् त्वम् ' बस ,उसी दिन से परिवर्तन हो गया ।तीव्र पुरुषार्थ का अर्थ ही है - तीव्र परिवर्तन , ' तुरन्त दान महापुण्य ' ।बाबा ने इस बात को अपने जीवन का महामंत्र बना लिया था ।
14. व्यर्थ को समर्थ बनाने की कला ( Tha Art of Making Waste into Best ) - लोग व्यर्थ ( waste ) लोहे को , सोने को गला कर नया रूप दे देते हैं । वैसे ही बाबा पुराने संस्कार , पुरानी आदतों को समाप्त कराकर अच्छी आदतें बना देते हैं । उन्हें सदैव सारी  पतित दुनिया को पावन बनाने का शुभ संकल्प रहता था । घर की कोई पुरानी स्थूल चीज हो उसे भी बाबा नया रूप देकर काम में आने लायक बना देते थे ।

15.- प्रशासन कला ( Tha Art of Administration ) - नई दुनिया की स्थापना करना , एक -एक के संस्कार को बदलना , कितना कठिन कार्य है । बडे से बड़ा कलाकार या प्रशासक वह है जो थोड़े से साधन से बड़ा कार्य कर दिखाये ।बाबा का सिद्धान्त था -कार्य शुरू करो साधन स्वतः जुटते जायेंगे ।बाबा हर एक व्यक्ति को कोई न कोई कार्य का अवसर देते थे ।बाबा का प्रशासन ऐसा उत्तम रहा जो यहाँ सभी स्वयं कार्य मांगते हैं , क्योकि यहॉं कार्य को सेवा और सेवा को भविष्य प्राप्ति के आधार के रूप में देखते हैं । यहाँ कोई अधिकारी या मैनेजर नहीं , किसी को रौब नहीं । अतः इस प्रशासन में कोई बन्द अथवा अवकाश भी नहीं है । प्रतिदिन ही पढ़ाई की क्लास नियमित समय पर होती है ।

16.सामने की कला ( The Art of Absorbance ) - बाबा  के जीवन में देखा गया कि यदि विश्वास से कोई बच्चा अपनी बात बाबा को सुनाता था तो बाबा उसको सागर की तरह समालेते थे , दूसरों तक नहीं पहुँचाते थे ,इससे सभी खुले मन से अपनी बात बाबा को सुना देते थे । गणेशजी को बड़े उदर के कारण समाने की कला के प्रतीक के रूप में दिखाया जाता है ।

     
              *❗ पहली कला  ❗*

*1.सर्व को मित्र बनाने की कला ! (The Art Of Winning Friends) :-* दूसरों को मित्र बनाने की कला बहुत बड़ी कला है ! बहुत से लोग अपनी किसी-न-किसी कमी के कारण लोगों को शत्रु बना बैठते है !और उसके परिणामस्वरूप मानसिक अशान्ति और दूसरों की दुश्मनी मोल ले लेते हैं ! दूसरों को मित्र बनाने के लिए मनुष्य में मुख्य यह नौ बातों का होना आवश्यक हैं !

* 1⃣* दूसरों के प्रति शुद्ध प्रेम अर्थात् निःस्वार्थ प्रेम !


* 2⃣* मिलनसार स्वभाव और स्वयं को ढालने की योग्यता *(The Quality Of Mixing & Moulding) !*

*🙍3⃣* सरल स्वभाव अथवा मन की सच्चाई और सफ़ाई !

*4⃣* पवित्र और उच्च जीवन का *Sample & Example !*

*😮 5⃣* शान्त स्वभाव, मधुरता और मान्यता का गुण अर्थात् *(Like As It Is) !*

* 6⃣*  निकट सम्पर्क में आने का गुण ! अर्थात् अपने  पन की भावना का अनुभव कराना !

*🎪7⃣* दूसरों की सेवा और सहायता के लिए सदा तैयार रहना !

*😤8⃣* दूसरों की कटु अालोचना न करना तथा उन्हें सम्मान और प्रशंसा देना !

*🍭9⃣* दूसरों के लिये अपने सुख-सुविधा का भी त्याग करने की भावना !

                         💯 आप यह तो सब मानते कि प्रेम ही शत्रु को मित्र बनाने के लिए एक मंत्र का काम करता है ! और  परमपिता  परमात्मा  *प्रेम का सागर (Ocean Of Love)* है ! यदि हम *प्रेम के सागर* से *लव* रखते है ! *तो किसी भी मनुष्य  में लव रखना मुश्किल नहीं होता  क्योंकि हम सब (आत्मिक रूप) से परमात्मा की सन्तान हैं !* हम फिर दूसरों के अवगुणों को न देख गुणों को देखेगें तो प्रभु प्रिय जग प्रिय बन जायेगें !


               *❗ दूसरी कला  ❗*

*2. व्यवहार कला अथवा खुश रखने की कला ! (The Art Of Dealing With Others Or Pleasing Others) :-* मनुष्य का जीवन वास्तव में ऐसा होना चाहिए कि वह दूसरों को चन्दन की तरह शीतलता देने वाला हो, गुलाब की तरह सुगन्धि देने वाला हों और 🍹मधु  के समान मीठा अथवा प्रिय लगने वाला हो तथा 🍋फल के समान रस देने वाला हो ! परन्तु अपने व्यवहार को ऐसा सुन्दर और कुशल बनाना, जिससे कि लोग सन्तुष्ट और प्रसन्न हों यह भी एक कला है ! उसमें मुख्य रूप से यह छः बातें होना आवश्यक हैं ! ..............

* (१)* दूसरों के जीवन को भी अनमोल समझना और उनके जीवन में कोई बाधा न ड़ालना ! हदय से उन्हें आगे बढ़ाना,आदर देने , आश्रय देना, सुख देने आदि की पूरी कोशिश करना !

* (२)* दूसरों के भाव और स्वभाव दोनों को समझकर अर्थात् उनके संस्कार और परिस्थिति को जानकर उनके प्रति सहानुभूति, शुभ भावना और स्नेह की भावना रखना !

* (३)* सदा यह लक्ष्य अपने सामने रखना कि वह दूसरों पर किसी भी प्रकार से बोझ न बने और उनसे विशेष सेवा न ले !

*(४)* सदा इस बात को याद रखना कि यदि दूसरों को दुःख दूँगा तो दु:खी होकर मरूँगा ! *(This Is Really Fact)....*
                   
* (५)* सबका शुभचिंतक बनना और शुभकामना रखना !
                 
*🇮🇳 (६)* अपना कर्त्तव्य पालन करना तथा उत्तरदायित्व निभाना !

                         💯 जब कोई मनुष्य महसूस करता है कि दूसरा व्यक्त्ति उसकी सुख-सुविधा का भी कुछ ख़्याल करता है, उसमें थोड़ी-बहुत योग्यता भी मानता है, उसके जीवन का भी कोई मूल्य तथा आदर समझता है तो उस व्यक्त्ति के प्रति एक विश्वास की भावना आ जाता है ! और वह उस व्यक्त्ति में अपनापन महसूस करता है ! लेकिन यह सब सुख-सुविधा, योग्यता, जीवन का मूल्य,आदर इत्यदि वह मनुष्य दे सकता ! जिसके अन्दर सभी मूल्यों का स्टॉक जमा हो!   

                         💯 जैसे बड़ा भाई अपने भाई को ऊँचा बनाने की सदा चेष्टा करता है , वैसे ही *परमात्मा को पिता रूप में याद रखने वाला, सच्चा योगी ही आत्माओं रूपी भाइयों के जीवन को भी ऊँचा बनाने की चेष्टा करेगा ! निश्चय ही परमात्मा को याद करने वाला ही जन-मन को सन्तुष्ट कर सकता है और लोक पसन्द बन सकता है !"*

                 
             *❗ तीसरी कला  ❗*

*3. परिवर्तन लाने की कला ! (The Art Of Reforming, Refreshing & Developing) :-* बहुत से मनुष्य ऐसे होते हैं जो अपने जीवन में परिवर्तन लाना नहीं जानते ! उन्हें अपने संस्कारों को बदलने की कला नहीं आती ! चाहते हुए भी वे अपने स्वभाव को नहीं बदल पाते और इसलिए वे परेशानियों से घिर जाते हैं ! परन्तु परिवर्तन एक ऐसी कला है जिसके द्वारा मनुष्य के जीवन की चढ़ती कला हो जाती है ! अपने में और दूसरों में परिवर्तन वही ला सकते जिसमें मुख्य रूप से यह छः बातें होना आवश्यक हैं !
               
*😮 (१)* दूसरों की खूबियों को देखना और उन खुबियों पर खड़ा करके उन्हें अच्छे कामों में लगाना और अच्छाई में परिवर्तन करके उनकी बुराई परिवर्तन की कोशिश करना !
                   
*👫 (२)* उन्हें अपने साथ मिला लेना प्रेम से अपना बना लेना और स्वयं में उनका विश्वास बिठाकर, उन्हें स्नेह देकर,उनके अवगुण को मैत्री भाव से हर लेना !
                 
*🏃 (३)* उन्हें अपने से आगे रखना अर्थात् आगे बढ़ाना !
                   
*🙋 (४)* उनके कार्य की यथोचित सरहाना करना, ' वाह-वाह ' करके उन्हें हिम्मत दिलाना तथा और आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना !
                   
*👰 (५)* अपने उँचे विवेक द्वारा उनकी विवेक-युक्त्त रीति *(In Convincing Manner)* से उनकी विचारधारा को पलटना !
                       
* (६)* अपने हर एक कार्य में अलौकिकता के द्वारा उन्हें अलौकिक बनाना

                         *💯 जब तक हम यह नहीं समझेगे कि परिवर्तन पहले मुझे करना है तब तक हमारे  मे परिवर्तन की प्रक्रिया  आयेगी नहीं !* 


             
              *❗ चौथी कला  ❗*
                     
*4. मन को खुश और सन्तुष्ट रखने की कला ! (The Art Of Keeping Happiee & Contented) :-* स्वयं को सदा प्रसन्न और सन्तुष्ट रखना भी एक बहुत बड़ी कला है ! कुछ गिने-चुने मनुष्य ही हर परिस्थिति में स्वयं को सन्तुष्ट रख पाते हैं ! किसी ने थोड़ा सा कुछ कहा तो हम नाराज़ हो जाते है और कहीं भी किसी वस्तु की कमी रह जाती है तो हम असन्तुष्ट हो जाते हैं ! दूसरे शब्दों में कहे तो ' मूड' खराब हो जाता है ! कोई अप्रिय घटना घट गई तो मन दुखी हो जाता है !
                     
                         🍀 लेकिन मन को खुश और सन्तुष्ट रखना एक ऐसी कला है जिसको कुशलता से अपनाने पर मनुष्य रोग में, किसी मित्र की मृत्यु होने पर , व्यापार में कोई हानि होने पर अथवा अन्य किसी ऐंसी-वैसी परिस्थिति में भी अडौल तथा  हर्षित अवस्था  में रहता है !  इसलिए योगी *(भगवान में सच्ची आस्था रखने वाला)* के बारे में कहा जाता है कि वह निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, हानि-लाभ आदि-आदि में एकरस अवस्था में रहता है ! 
             
                         🍀 देखा जाये, तो अपने मन को खुश और सन्तुष्ट रखने के लिए मुख्य रूप से यह छः बातों का होना आवश्यक हैं !
             
*📚 (१)* ज्ञानयुक्त्त दृष्टिकोण अर्थात् जब आपका विवेक जागृत होता है तो आप हर परिस्थिति को भांप कर उस का निवारण कर सकते है ! लेकिन यह सब तब होता है जब आपको भगवान में सम्पूर्ण निश्चय हो !
                   
* (२)* दूसरों को न देख सदा अपनी अवस्था सम्भालना और विकट परिस्थिति में भी अपनी अवस्था ठीक बनाये रखने का लक्ष्य रखना !
                   
* (३)* उपकारी *(जो आप के लिए अशुभ सोचता हो)* के प्रति भी उपकार की भावना बनाये रखना !
                 
*❇ (४)* 'भावी' अथवा ' 'होनी' को निश्चित मान अपने ही पूर्व कर्मो का फल जानकर कर्म-खाता चुकता मानना !
                 
* (५)* साक्षी अवस्था धारण करना अर्थात् जो हुआ अच्छा , जो हो रहा है वह भी अच्छा, जो  होगा  वह भी  बहुत अच्छा ! *........ ( गीता ज्ञान )........*
                   
*🌳 (६)* यह सृष्टि एक कल्प वृक्ष के समान है जैसे सोचोगें वैसे ही बन जायेगें अगर अच्छा सोचगें तो अच्छा ही होगा और अगर खराब सोचगें तो वैसे ही होगा .

       
              *❗ पांचवी कला  ❗*
                 
*5. संगठन कला, नेतृत्व कला और प्रशासन कला ! (The Art Of Organising, Leadership & Administration) :-* मनुष्य के जीवन में सफलता इसमें है कि वह कोई ऊँचा कार्य करे, कोई विशेष बात करके दिखाये ! उसके लिए ज़रूरी होता है कि मनुष्य दूसरों को भी सहयोगी बनाये, उन्हें संगठित करें ! परन्तु बहुत से मनुष्य अपने जीवन में कोई ऐसा महान् कर्त्तव्य कर नहीं पाते ! उनमें कुछ विचार तो होते हैं परन्तु वे उन विचारों को स्वरूप नहीं दें पाते ! अब विचार करने पर आप इस निर्णय पर पहुँचेंगे कि इस क्षेत्र में सफलता के लिये मनुष्य में मुख्य रूप से यह छः बातों का होना आवश्यक हैं !
               
*😮 (१)* दूसरों को एक सुन्दर योजना देकर सहयोगी और साथी बनाने की योग्यता !
               
*😀 (२)* उनमें उत्साह भरने की योग्यता और स्वयं में भी सदा उत्साह और प्रबल प्रेरणा *(Insight & Intention)* का होना !
                 
*😇 (३)* शीघ्र निर्णय कर सकना अर्थात् बुद्धि का क्लीयर होना तथा दूरादेशी होना !
                 
*🤝(४)* सबको मिलाने की योग्यता ! अर्थात् एकजुट करने की भावना !
                   
*🌳(५)* व्यवस्था करने व नियंत्रण करने की योग्यता !
                 
*🙇🏻(६)*  सभी की बातों को अपने मन में समाने की योग्यता और उन्हें यथा-योग्य यथा-शक्त्ति नये-नये प्रयास में लगाना !

                         *💯 चरित्र निर्माण और जनकल्याण मे उत्साह उसी में हो सकता है जिनकी बुद्धि की लगन कल्याणकारी प्रभु से हो ! परम बुद्धिमान परमात्मा के साथ बुद्धि का योग होने से उसे सुन्दर-सुन्दर योजनायें सूझती है और उन्हें कार्य में लगाने के लिए मार्गदर्शन भी मिलता है इस प्रकार परमात्मा में बुद्धि लगाने से नेतृव्य कला का विकास होता है !*

               
*❗ छठवीं कला  ❗*

*6.  सीखने और सिखाने की कला (The Art Of Learning & Teaching) :-* वास्तव में मनुष्य जीवन-भर एक " विद्यार्थी  " है परन्तु गिनती-भर लोग होंगे  जो  जीवन-भर  कुछ -न-कुछ सीखने  का लक्ष्य  अपने सामने रखते होंगे ! बहुत लोगों के सीखने की गति अत्यन्त मन्द होती है क्योंकि वे अपनी अल्पविद्या के अभिमान में चूर होते है अथवा और अधिक सीखकर आगे बढ़ने का शौक उन्हें नहीं होता, उनका जीवन विकास की ओर नहीं नीचे की ओर जाता है, जीवन को भोगने में लगे हुए ऐसे लोग एक दिन स्वयं ही भोगे जाते है !

                          इस प्रकार, मनुष्य जाने-अनजाने दूसरों को कुछ न- कुछ सिखाता भी रहता है ! मनुष्य जब घर में अपनी पत्नी से क्रोध करता है और उस पर हाथ उठाता है तब क्या उसके नन्हें-मुन्ने बच्चे उसकी हरकत को नहीं सीखते ? क्या..  इस प्रकार, मनुष्य नहीं जानता परन्तु सत्य बात है कि उसकी चाल को, उसकी पोशाक को,उसकी हर बात को, उसके व्यवहार और आचार को उसके आसपास के लोग देखते और उससे प्रभावित होते हैं ! विचार करने पर आप इसी निर्णय पर पहुँचेंगे कि सीखने और सिखाने की कला के लिए मुख्य रूप से यह छः बातों का होना आवश्यक हैं !
                     
*🎻 (१)* गुणग्राहक वृति अर्थात् हर एक से कोई न कोई गुण ग्रहण करना !
                       
*😐 (२)* निरहंकारिता अर्थात् सरल और सहज स्वभाव !
                         
*🔧 (३)* सीखने की एक दिल में इच्छा और ये भावना कि मुझे बहौत सीखने की आवश्यकता है !
                       
*👬 (४)* और दूसरों को सिखाने के लिए एक तो मनुष्य में ऊँच-नीच की भावना नहीं होनी चाहिए !
                         
* (५)* उसमें दूसरों को परखने की शक्त्ति होनी चहिऐ !
                         
*👆 (६)* उन्हें जिस बात की शिक्षा देनी है वह बात प्रैक्टिकल करके दिखाना चाहिए ! चाल चलन से पता बोलती है।

                         *💯 इस प्रकार, जिस मनुष्य के मन में ये भाव ही न हो कि अभी सीखने के लिए काफ़ी गुंजाइश है ! वह विद्या प्राप्ति का सौभाग्य कैसे प्राप्त कर सकता है?*


              *❗ सातवीं कला  ❗*

*7. कार्य करने और कार्य निवृत्त होने की कला ! (The Art Of Enjoying Work & Leisure) :-* आपने देखा होगा कि बहुत- से-मनुष्य ऐसे भी होते हैं जो मामूली-सा कार्य होने पर भी अति व्यस्त और भारी हुए - से दिखाई देते हैं ! बहुत कम ही लोग ऐसे होते हैं जो कार्य होने के बावजूद भी हलके *(Light)* मालूम होते हैं और निश्चिन्त तथा कार्य से निवृत्त *(Detachment)* दिखाई पड़ते हैं ! प्रायः मनुष्य जब किसी कार्य में प्रवृत्त *(Attachment)* हैं तो वे उसमें इतने लिप्त हो जाते हैं कि फिर उनके लिए उपराम होना भी मुश्किल हो जाता है !
                 
                         🐝 जैसे कोई मक्खी शहद में मुँह डालने के बजाये अगर टाँगें डाल देती है  तो  उसी शहद से चिपक कर वहीं प्राण छोड़ देती है ! ऐसे कम ही लोग होते हैं जो स्वेच्छानुसार अभी प्रवृत्त होना और अभी-अभी निवृत्त होना *(The Art Of Attachment & Detachment)* जानते हैं ! अर्थात् केवल कुछ गिने-चुने लोग ही कार्य करते समय ऐसे दिखाई देते हैं जैसे कि उनमें सम्पूर्ण आत्म-विश्वास हो , उस कार्य पर उनका पूर्ण काबू हो और उसके परिणाम के बारे में उन्हें रिंचक भी चिन्ता न हो यद्यपि वे उस कार्य को सुचारू रूप से करने के लिए पूर्ण रूप से सतर्क *(Alert)* और प्रयत्नशील होते हैं और अन्त तक अपना पुरूषार्थ नहीं छोड़ते !
               
                         📕 गीता में तो एक जगह पर स्पष्ट कह भी दिया गया है कि कर्म-कौशल्य का नाम योग है ! विचार करने पर मालूम होता है कि इस कला के लिये मनुष्य में मुख्य रूप से यह छः बातों का होना आवश्यक हैं !
               
* (१)* कार्य को समेटने की शक्त्ति !
               
*🐢 (२)* विस्तार को सार करने की शक्त्ति ! जैसे कछुए में यह खूबी होती है कि जब उसे कार्य करना होता है तो अपनी कर्मेन्द्रियाँ का विस्तार कर लेता वरना समेट लेता है !
               
* (३)* सभी कार्यो में कुशलता प्राप्त करने अर्थात् ' आलराउन्डर ' *(All-Rounder)* बनने का प्रयास !
                 
*😇 (४)* अपने में सम्पूर्ण विश्वास और निश्चय अर्थात् आत्मविश्वास !
                   
*💯 (५)* यह सोचना कि यह कार्य तो मैंने असंख्य बार किया है, यह कोई बड़ी बात या नई बात नहीं है !
               
*🌹 (६)* आत्म-विश्वास अर्थात् यह निश्चय कि हम जो भी कार्य इमानदारी और मेहनत से करेंगे उसमें सफलता जरूर मिलेगी ! जैसे कि गीता में कहा गया है कि कर्म करगें तो भगवान अवश्य फल देने के लिए बन्धा हुआँ है !

          *❗ आठवीं कला (ब)  ❗*

*8.(B) पत्र-लेखन कला ! (The Art Of Letter-Writting) :-* पत्रों से किसकी मनोवृत्ति का पता चलता है !  पत्र-लेखन मन का दर्पण है ! आप देखेंगे कि आज कुशल जन-नायक अथवा विख्यात  महात्मा जो अच्छा भाषण कर लेते हैं तथा पत्रों में भी लोगों के लिये कुछ ऐसा लिख देते हैं  कि लोग उन पत्रों को अपने जीवन की अनमोल निधि मानकर उन्हें सुरक्षित रखते हैं !  जिन्होंने इस कला को साध लिया है  वे अपने पत्रों द्वारा मनुष्य के विचारों को भी मोड़ देते हैं और उनके  संस्कारों को बदल देते हैं !
             
                          पत्र-लेखन कला से दूर बैठे न जाने किस डोर से चल आते हैं , उनकी   मार्ग-दर्शन करते, उन्हें किसी अच्छे उद्देश्य के लिये प्रेरणा करते तथा एक  उच्च लक्ष्य के लिये सहयोगी बनाकर उसका सौभाग्य  बना देते हैं ! जो मनुष्य जितना   गुणी, ज्ञानवान, महान; विचारक तथा जन-हितैषी होता है, उसके  भाषणों तथा पत्रों से भी उस का  व्यक्त्तित्व पता चलता है ! महान् व्यक्त्तियों के भाषण अथवा पत्र इतिहास को नई मोड़ देने वाले बन जातें हैं ! तथा उनका प्रभाव लाखों लोगों पर वर्षों तक पड़ता है !
               
                          यदि, व्यवहार क्षेत्र में आप देखेंगे  कि  जो व्यक्त्ति दूसरों को अपनी बात जँचा देना, मनवा *(Convince)* लेना जानता है  उसके कई कार्य बन जाते हैं ! और जो व्यक्त्ति अपनी बात को दूसरों के सामने स्पष्ट रूप से नहीं  रख पाता, वह जगह-जगह असफल होता है ! इसी प्रकार, जो व्यक्त्ति अपना आवेदन-पत्र,  अपना प्रस्ताव, अपना निजी-पत्र ठीक बना पाता है,  उसका  कार्य सिद्ध हो जाता है ! अतः एक अच्छा  वक्त्ता  होना और पत्र-लेखन  में  प्रवीण होना.......... जीवन की सफलता का एक बहुत बड़ा साधन है !
               
                         * ध्यान देने पर आप इस निर्णय पर पहुँचेंगे कि पत्र-लेखन की कला से  सम्पन्न  बनने के  लिये   इन  गुणों  का  होना  ज़रूरी हैं   !  (१) ज्ञानवान (२) महान;विचारक (३) सत्यता अथवा सफ़ाई तथा सच्चाई (४)  गहराई   में  जाना  (५) दूरदर्शिता (६ ) जन-हितैषी होना (७) साहित्य का ज्ञान !*
               

          *❗ आठवीं कला (अ)  ❗*
             
*8.(A)बोलने एवं भाषण करणे की कला ! (The Art Of Speech & Speaking) :-* एक प्रभावशाली एवं लोक-पसन्द भाषण कर सकना, निजी बातचीत में अपने भाव को स्पष्ट प्रकट करना , संक्षिप्त *(To The Point)* सुन्दर ढ़ंग से बता सकना, अपनी बात के लिये लोगों  के मन में उत्सुकता ,विश्वास तथा मान्यता *(Conviction)* का भाव पैदा कर सकना...यह भी एक कला है ! मनुष्य यदि कुशल वक्त्ता हो तो वह लोगों के मन में घर कर लेता है और उन्हें अपना सहयोगी, समर्थक, सहायक अथवा अपना बना लेता है ! वह अपने प्रिय बातों से जन-जन को अपना बनाकर उनसे अच्छे सम्बन्ध स्थापित कर लेता है और इस प्रकार जीवन में सुख का अनुभव करता है !
                 
                          एक कहावत है कि..." यही ढाई इन्च की ज़बान मनुष्य को तख्त पर भी बिठा सकती है, और यही उसे तख्ते पर *(फ़ाँसी पर)* भी चढ़ा सकती है ! " किसी मनुष्य की बातचीत दो रूठे हुए व्यक्त्तियों को भी मिला देती है और अन्य किसी की चुग़ली, निन्दा,अवगुण-वर्णन की आदत, दो लोगों में भी द्वेष तथा घृणा पैदा करने का कारण बन जाती है ! यदि कोई मनुष्य ज्ञानयुक्त्त,अनुभव पूर्ण, अनमोल वचन बोले तो लोग कहते हैं कि इस मुख से फूल बरसते हैं अथवा ' फूल झड़ते हैं ' और यदि कोई मनुष्य कटु, अनीतिपूर्ण , अपमान-सूचक , मिथ्या य विवादपूर्ण वचन कहे तो लोग कहते हैं कि....." इसकी ज़बान तो  हथोड़े का काम करती है ! "

                         अतः किसी ने कहा है...
  " कौआ किसका धन हरे, कोयल किसका ले , मीठी वाणी बोलकर , जग अपना कर ले ! "

                         🍀 कौआ और कोयल हैं तो दोनों ही एक रंग में  काले परन्तु दोनों के  वचन अलग-अलग हैं ! इसलिए एक की उपस्थिति लोगों को भाती है, दूसरे की अखड़ती है ! यही बात मनुष्यों पर भी लागू होती है ! इस कला से सम्पन्न बनने के लिये इन गुणों का होना ज़रूरी है....

                         *(१) मधुरता (२)सरलता (३) ओज (४) रमणीकता (५) नम्रता (६) गम्भीरता (७) सहजता (८) सत्यता अथवा सफ़ाई तथा सच्चाई (९) धैर्य (१०) ज्ञान एवं विचारशीलता (११) निश्चय (१२) स्नेह, अपनापन, शुभभावना (१३) उत्साह (१४)उल्हास और (१५) दूरदर्शिता*

               *❗ नौवीं कला  ❗*

*9.विचार कला और निर्माण कला ! (The Art Of Thinking & Creating) :-* विचार  एक  बहुत  बड़ी  शक्त्ति  है ! जिसे विचार करने  का  ढ़ंग आता है  वह हर बात का कोई-न-कोई हल निकाल लेता है ! जड़ और चेतन में यही तो अन्तर है कि चेतन में विचार शक्त्ति होती; सोचने, समझने और उसमें सुधार करने का संकल्प होता है ! *"चिन्तन ही जीवन है"* आज  आप देखेंगे कि संसार में जितना भी निर्माण-कार्य हुआ है, उसके  लिये पहले विचार उत्पन हुआ अथवा विचार किया गया है ! संसार में सारी चहल-पहल, सभी वस्तुएँ सभी परिणाम विचार के ही फल हैं !
               
                         👤जो विचारक होता है , वह कोई नई योजना  बनाता, नई अविष्कार *(Invention)* करता, नया ज्ञान-रत्न संसार को देता और किसी समस्या का हल बता कर जन-जीवन को उबारता है ! जो लोग विचार-कुशल हैं, आज वे ही  संसार में सिरमौर अथवा वी•आई•पी ( V•I•P) बने हुये हैं ! जिस  जाति,  समाज,  देश   अथवा संस्था में अच्छे विचारक नहीं हैं , वे पिछड़ गये हैं ! जिनका विचार नहीं चलता वे 'जडमति' अथवा 'पिछड़े हुए' कहलाते हैं, उनकी प्रगति रूक जाती है, वे जीवन-क्षेत्र में अनुभव रत्न प्राप्त नहीं कर पाते ! अतः विचार भी एक बहुत बड़ी कला हैं !
                       
                          जो समय  को मूल्य  नहीं   देता वह  तो  अपने जीवन  के  बहुत-से अनमोल  क्षण, स्वर्णिम अवसर, सुहावने दिन,अनुकूल परिस्थितयाँ यों ही गँवा देता है ! जो अपनी विचार-शक्त्ति  को किसी  एक  केन्द्र पर एकाग्र करने के बजाय उसे बिखेर देता है, वह उस मानव की तरह है जो एक स्थान  पर  20 फुट गहरा खोदकर कुँआ  बनाकर पानी प्राप्त करने की  बजाय,  बीस जगह केवल एक  फुट गहरे खड्डे खोद देता है !

_*ध्यान  देने  पर आप देखेंगे कि इस कला में निपुणता  प्राप्त करने के लिये निम्न गुणों का होना अतिआवश्यक है :-*_
       
                         *🍹 (1) सुनी हुई बात पर मंथन (2) आगे बढ़ने का संकल्प अथवा जीवन में कोई उच्च कार्य करने का उत्साह  (3) समय को मूल्य देने का स्वभाव (4) मन की एकाग्रता (5) दृष्टिकोण की विशालता (6) मन की निर्मलता ..................... ( Flawlessness)  (7)  विचारों को   Quama, Question Mark, Full Stop,........        Sign Of Exclamation को     यथा---स्थान अथवा  यथा-समय  लगाने की  योग्यता  (8)  शक्त्ति को व्यर्थ न   करने  का  स्वभाव  (9)  नये-नये प्रयोग, तजुर्बे तथा साहसी कार्य करके नये क्षेत्र में  प्रवेश करने का गुण (10) एकान्त (Silence)  से प्रेम !*

              *❗ दसवीं कला  ❗*
             
*10. कल्याण कला और सेवा कला ! (The Art Of Doing Social Service & Spiritual Welfare) :-* इसको पढ़कर  शायद कोई व्यक्त्ति सोचेगा कि क्या यह भी कोई कला है परन्तु गहराई से सोचने पर हर कोई इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि वास्तव में यह एक बहुत बड़ी कला है ! *यह कला तो कोटि-कोटि मनुष्यों में से किसी अति महान् ही के जीवन में हम देख पाते हैं* आज इसी कला की कमी से ही तो सभी मनुष्य कलाहीन हो गये हैं, तभी तो वे एक-दूसरे को दुःख देते रहते हैं ! एक महात्मा गाँधी में सेवा-भाव   था तो, देखिये, कि उसने एक बड़े  जन-समूह को साथ मिला  लिया परन्तु सेवा-कला तो सेवा-भाव से भी उच्च प्रतिभा है क्योंकि 'कला' तो किसी कार्य को कुशलतापूर्वक करने, किसी  विद्या में निपुण होने,  किस गुण  में सिरमौर होने, किसी विशेषता होने का वाचक है !
                 
                            कई   लोग अपने प्रारिम्भिक जीवन में  सोचते हैं कि-"  बड़े  होकर  हम  फलाँ काम अथवा जन-कल्याण  का अमुक कार्य कर करेंगे परन्तु कुछ ही समय में वे स्वयं भी समाज के दूषित वातावरण में रंग  जाते हैं ! कोई भी भला कार्य  करने  में बहुत परीक्षायें तो पार   करनी ही पड़ती हैं  ! जो कठिनाइयां सामने आती हैं, उन सभी का हल निकालना पड़ता  हैं, निन्दा, झुकना और कदम-कदम पर  मरना पड़ता है ! अतः सभी परिस्थितयों में सबका न केवल भला सोचना, बल्कि उनके कल्याण के लिये कुछ ठोस कार्य करना, अपना तन-मन-धन लगाना, त्याग, नम्रता, सहनशीलता, निःस्वार्थ भाव और  शुभचिंतन- यह सब कुछ महत्व रखता है !
                 
                          दूसरों के  कल्याण का  कार्य  तो वह ही कर सकता  है जिसकी अपनी  स्थिति उच्च हो ! दूसरों  की  सेवा  में  वही  सफल  हो सकता है जिसके पास सामर्थ्य हो ! अतः यह कला *आत्मिक शक्त्ति और दिव्यता* *(Divinity)* का सूचक है ! यह  कार्य वही कर सकता है जो इतना महान् हो कि वह दूसरों का शुभचिंतक, सदा सबका भला चाहने वाला और जिसका मन - *"सर्वे भवन्तु सुखिना"* के संकल्प से ओत-प्रोत हो, *'चढ़ती कला, तेरे भाणे सर्व दा भला'* यही प्रबल अभिलाषा हो ! *'प्राणियों में सदभावना हो, विश्व कल्याण हो' -* यह उसका केवल नारा नहीं, विचारों का *ताना-बाना* हो, *वही कल्याण का कार्य करने में सफल सिद्ध हो सकता है !*

          *❗ ग्यारहवीं कला (अ)  ❗*
           
*11. 🅰 गुप्त रहने की कला ! (The Art Of Concealing) :-* परमात्मा की महिमा करते हुये लोग कहते हैं कि- "अपने आप सभी कुछ करके, अपने आप को छिपाया !" अतः यह भी एक बहुत बड़ी कला है कि बहुत महान कार्य करते हुए भी मनुष्य स्वयं को गुप्त एवं साधारण वेश-भूषा में रखें और अपनी ख्याति, यश या प्रशंसा को मन से स्वीकार न करे बल्कि स्वयं को छिपाकर रखें ! बहुत-से मनुष्य कोई छोटा-सा भी कार्य  करते हैं तो उसके बदले में नाम कमाना चाहते हैं, प्रशंसा सुनना चाहते हैं अथवा उच्च स्थान पाना चाहते हैैं ! आज कोई कुर्सी का इच्छुक है, कोई गुरू-गद्दी का, कोई मान का, कोई प्रतिष्ठा का !
               
                         🏮  गुप्त  रहने की कला में अपने जीवन में अधिकाधिक गुण भरते हुए भी स्वयं को गुप्त रखना-यह भी एक कला ही तो है ! इस कला से  सम्पूर्ण मनुष्य हमेशा यही चाहता  है कि वह कार्य भी करे और लोग उसके गुण न गाये, उसकी प्रशंसा  न करें या उसका श्रेय उसे न दें, न  वह युक्त्तियुक्त्त अथवा ज्ञान-संगत रीति से स्वयं को गुप्त  करना जानता ही है ! भगवान कहते है कि यश की कामना  करने अथवा नामाचार स्वीकार करने से पुण्य क्षीण होते हैं ! अतः  मनुष्य को चाहिये कि न अपनी महिमा स्वयं करे, न ही दूसरों से अपनी महिमा स्वीकार  करे अर्थात् उसे चाहिए कि यदि अन्य कई लोग उसकी महिमा करें तो वह उसे सुनकर अभिमानी न  बनें, खुशी से इतराने न लगे और उस महिमा को अपने लिये न मानकर उन्हें यह कहे कि यह सब प्रभु देन *(Godly Gift)* है !
               
                          इस कला  की कमी का परिणाम यह होता है  कि  वह अपने  किये  हुए अच्छे  कार्य का क्षणिक फल  यश  के  रूप में भोगकर खाली हो जाता   है और उस प्रशंसा को स्वीकार  करके अभिमान का रोग हो जाता है तथा उस का स्वभाव ही ऐसा हो जाता है कि जहाँ जाता है, वह उस की कामना होती है कि लोग मेरा नाम करें, मुझे भी समझदार और अच्छा कार्यकर्ता मानें, मुझे आदर दें मेरा आतिथ्य  करे  तथा  मेरे विचार  पूछें !  इस प्रकार वह  नम्रतापूर्वक अनमोल रत्न को गँवाकर कंगाल हो जाता है, लोगों द्वारा मान रूपी टुकड़े के लिये सदा मौहताज रहता है और मन  उनसे मन-चाहा आदर न मिलने पर उनसे रूष्ट, असन्तुष्ट या खिन होकर दुःखी होता है !
                     
                         *🌚  तो   स्पष्ट  है कि जीवन को नम्रता, स्नेह, सहयोग आदि दिव्य गुणों से  युक्त्त बनाये रखने के लिये तथा आन्तरिक रीति से सदा प्रसन्न, अपनी मस्ती में मस्त रहने के लिये स्वयं को  गुप्त रखना  भी  एक बहुत  बड़ी  एवं उपयोगी कला है।*

          *❗ ग्यारहवीं कला (ब)  ❗*
             
*11.- B प्रत्यक्ष करने की कला !  (The Art Of Revealing) :-* 👥 जैसे स्वयं को गुप्त रखना एक कला है ! वैसे ही प्रत्यक्ष करना भी एक कला है ! पब्लिसिटी भी एक कला है ! बुहत-से लोग अपनी या अन्य किसी  की पब्लिसिटी करना जानते हैं परन्तु उसके  साथ गुप्त  नहीं रहते, अतः उसे दिव्यता के दृष्टिकोण से कोई कला नहीं कहेंगे ! कला तो इसमें है कि दोनों बातें साथ-साथ सिद्ध हों ! हम गुप्त भी रहें और प्रत्यक्ष भी हों ! यह कैसे हो सकता है ? कोई मनुष्य  कह सकता है कि ये दोनों काम एक साथ करने की कामना करना तो गोया ऐसी कामना करना है कि हम आटा भी गूँधें और हिलें भी नहीं ! परन्तु बात  वास्तव में ऐसी नहीं है ! आपने देखा होगा कि नट रस्सी पर चढकर कर्तव्य भी  करता है और सन्तुलन भी रखता है ! ऐसे ही ये दोनों कार्य भी एक साथ हो सकते हैं, कैसे ?
                   
                          वास्तव में स्वयं नम्र  रहना, स्वयं को गुप्त रखना ही अप्रत्यक्ष रूप से प्रत्यक्ष करना है ! ज्ञानवान मनुष्य का लक्ष्य तो यही रहता है कि वह परमपिता की ही महिमा करे तथा कराये ! इस उद्देश्य से वह अपना अनुभव व्यक्त्त करते हुए दिल की गहराइयों से कहता है कि में पहले  विकारों के गर्त्त में था, दुखी  था, घोर अन्धकार-कूप में था, प्रभु ने मुझ पर कृपा की और  मुझे.... बनाया है ! इस प्रकार प्रभु की प्रत्यक्षता करने से  उसकी अपनी प्रत्यक्षता साथ-साथ होती जाती है क्योंकि उससे  यह मालूम हो जाता है कि उस का जीवन कैसे उच्च बना है !
                     
                         😀 तथापि उसका उद्देश्य यह नहीं होता कि वह अपनी प्रत्यक्ष करे ! उसका लक्ष्य तो गुप्त प्रभु के सर्वोतम एवं कल्याणकारी कर्त्तव्यों को ही लोगों के ध्यान  में लगाकर उन्हें विपरीत-बुद्धि से   बदलकर प्रीत-बुद्धि बनाना होता है ! परन्तु ऐसा करने के लिये वह मन-वचन-कर्म से सच्चा, पवित्र, सेवा में सदा तत्पर एवं मधुरभाषी होकर व्यवहार करता है, तभी वह प्रत्यक्षता कर सकता है ! इससे सिद्ध है कि यह भी एक बड़ा आर्ट है, एक बड़ी कला है !

_* इस कला   को  धारण  करने  के  लिये किन गुणों की आवश्यकता है ?*_
           
                         * इस कला में निपुण हो बनने के लिये हममें  मुख्य  रूप  से सात   गुण   चाहियें :-  (१) स्नेहुक्त्त सम्बन्ध एवं  व्यवहार कौशल्य  (Good  Public Relations)  (२)  जिसको  को प्रत्यक्ष करना है  दिल की गहराईयों से   अनुभवयुक्त्त महिमा अथवा  गुणगान  (३)  तन-मन-धन  सभी साधनों  से लग्न और धुन से इस और पुरूषार्थ (४) वर्तमान    सार्वजनिक प्रचार एवं साधनों का अलौकिक एवं दिव्यतायुक्त्त रीति से प्रयोग (५) अपने स्वभाव में नम्रता तथा सत्यता (६) ग़लत एवं अपवित्र  साधनों का त्याग (७) अटूट प्रभु-निश्चय तथा उस एक के बल और भरोसे पर स्थिर !*

             *❗ बारहवीं कला  ❗*
             
*12. नेतृत्व कला ( The Art Of Leadership) :-* 🌐   संसार में प्रायः लोग दूसरों के पीछे-पीछे चलते हैं ! जैसे बहुत सी 🐏 भेड़ें आगे वाली भेड़ को देख कर उधर ही जाना शुरू  कर देती  हैं ! जिधर वह आगे वाली भेड़ जा रही हो, ऐसे ही प्रायः लोगों का हाल होता है !  इस प्रकार कई लोग कोई दूसरा रास्ता नहीं निकालते, वे लकीर   के फ़कीर होते हैं  ! जो रस्म-रिवाज चलते आये हैं , उन पर  वे पुनर्विचार नहीं करते ! गोया वे दूसरों की ही बुद्धि पर चलते हैं ! बहुत थोड़े ही लोग ऐसे होते हैं जिनकी बुद्धि रचनात्मक *(Creative)* होती है ! चीज़ों को अधिक आसान बनाने, वस्तु में नवीनता लाने, उसे अधिक उपयोगी बनाने, उसके सौन्दर्य को निखारने, कम ख़र्च में भी चीज़  को गुणवत्ता देने की योग्यता और कला किसी विरले में होती है !
                       
                         परन्तु , नेतृत्व वो कर सकता है जो कोई  नये विचार दे सके, नई योजना बना सकें, नया मार्ग दिखला  सके, मुर्दा दिल इन्सानों में भी नई जान डाल सके तथा बिखरे हुए लोगों को एक-जुट कर सके और उस संगठन को दिनों  दिन बढ़ाता हुआ चला जाये ! नेतृत्व वह कर सकता है जिसे व्यक्त्तियों की पहचान हो , जिसे ये मालूम हो कि कौन व्यक्त्ति क्या कर सकता है, और क्या नहीं  कर सकता है, कौन वफा़दार है, कौन धोखा दे सकता है, किस पर निर्भर हुआ जा सकता है और किस पर भरोसा करने में खतरा है ! जिसके बारे में आम  लोग यह कहते हैं कि वह काम का आदमी नहीं है, नेता उसको भी एक ज़िम्मेवार आदमी बना सकता है ! वो सब में उमंग-उत्साह ला कर एक नया जोश,  नई जवानी ला सकता है ! वो  कभी पूर्णतः निराश नहीं होता,  उसका अपना उत्साह अदम्य होता है ! उसकी चित शक्त्ति *(Will Power)* फ़ौलाद से भी मजबूत होती है !
                 
                         *🇲🇰  नेतृत्व  वो कर सकता है जो न केवल लग्न का पक्का हो बल्कि मन का सच्चा हो, चतुर हो परन्तु बे-ईमान न हो ! उसकी ईमानदारी ही उसकी सबसे बड़ी साख हो ! उँचे आदर्श, श्रेष्ठ विचार, निःस्वार्थ मन , कम ख़र्च वाली जीवन-पद्धति, सबसे प्रेम और मधुरता का व्यवहार, अनुशासन और प्रशासन की योग्यता व्यक्त्ति को एक अच्छा नेता बनाती है ! वह अच्छे अवसरों को अपने हाथ से टलने नहीं देता ! यदि कोई भूल-चूक हो जाये तो उसके लिए वो  क्षमा मांगना या प्रायश्चित करना जानता है ! लोगों द्वारा प्रशंसा या निन्दा किये जाने पर वो डावाँडोल नहीं होता ! वो सदा  चौकन्ना हो कर चलता है ! और जनता से तालमोल बनाये रखने की उसमें क्षमता होती है !*

              *❗ तेरहवीं कला  ❗*

*13. पालना करने की कला ! (The Art Of Sustenance) :-* जिस व्यक्त्ति को खेती करने की कला आती हो, वो जानता है कि बीज बोने के बाद खेत में  सिंचाई भी करनी पड़ती है और जब थोड़े-थोड़े   फूल-फल निकलने  लगते हैं तो उनका पक्षियों से बचाव भी करने की आवश्यकता होती है ! इस प्रकार कई क्रियाएं अन्य प्रकार की भी करनी होती हैं जिनसे उत्पादन में रूकावट न हो और फ़सल पूरी तरह से उग पाये ! थोड़े समय के बाद ज़मीन  में खुरपा आदि साधनों से नरम भी करने की ज़रूरत होती है ताकि पौधे को हवा और नमी  मिलती  रहे !  इसी प्रकार, जब हम किसी के मन में ज्ञान रूपी बीज बोते हैं अथवा उसकी बुद्धि में निश्चय  की  कलम लगाते हैं  तो उस ज्ञान और निश्चय को अनेक प्रकार की आपदाओं से सुरिक्षत रखना पड़ता है वरना कई कारण ऐसे उपस्थित होते हैं जिनसे कि मनुष्य के निश्चय की जड़ें कमज़ोर हो  सकती हैं और उसमें ज्ञान का बीज फलीभूत होने से वन्चित हो सकता है !
                   
                         🌲 इस कला का विकास मनुष्य में तब होता है जब उसके मन में ये भावना तीव्र रूप ले लेती है कि में अनेकानेक को सुख और शान्ति दूँ ! देने वाला, 'दाता' ही ये पालना कर सकता है ! जिसे लेने की धुन सवार हो  वो भिखारी व्यक्त्ति दूसरों को भला कैसे पालना दे सकता है ? पालना वो दे सकता है जिसमें दूसरों के प्रति स्नेह और सहानुभूति हो ! जिसका व्यवहार क्रूर हो और मन सदा असन्तुष्ट एवं रूष्ट हो, वो भला दूसरों को कैसे पालना दे सकता है ? अतः इस कला के लिये आवश्यकता इस बात कि दूसरों के प्रति शुभभावना  और दातापन का भाव हो !  पालना वही दे सकता है जिसका हाथ सदा देने की मुद्रा में हो ! परन्तु ये कला इतनी महत्वपूर्ण  है कि जो इसमें निपुण हो जाता है वो महान बन जाता है !
             
                          कुछ लोग नई-नई  बातों को सोचना और करना चाहते हैं ! वे नवीनता के बिना जीवन में नीरसता का अनुभव करते हैं ! वो नई योजना के बारे  में सोचना चाहते है, कोई नई रचना करना चाहते  हैं ! उनकी  बुद्धि में चिन्तन ऐसे चलता है  कि उन आत्माओं की पालना करनी हैं ! उनमें पालना के विभिन्र तरीके होते हैं !
               
                         *♻ (१) स्थूल एवं  सूक्ष्म प्रकार से मनुष्यात्माओं को पुरूषार्थ में आगे बढ़ाना ! (२) उनका सम्बन्ध ईश्वर से जोड़ना ! (३) दिनोंदिन उनके विकास के लिये नये साधन एवं   कार्यक्रम रचना ! (४) समय  और स्नेह के द्वारा उनके मन के बोझ  को  हल्का करना ! (५) उन्हें  आत्मीयता का अनुभव कराना ! (६) उनकी कमियों और कमजोरियों को दूर करने का यत्न करना ! (७) आध्यात्मिक शक्तियों से उन्हें शक्तिशाली बनाना !*

*🌹इस तरह हम अच्छे से दूसरों की पालना कर सकते हैं।🌹*

             *❗ चौदहवीं कला  ❗*

*14. बिगड़ी को बनाना अर्थात् व्यर्थ को समर्थ में बदलना ! (The Art  Of  Making Waste To Best) :-* कई बार किसी चीज़ को देखकर ऐसा लगता है कि वह बिल्कुल बेकार है , उसकी कुछ उपयोगिता नहीं  है ! उसे फैंक दिया जाता है ! परन्तु आज तो कबाड़खाने बने हुए हैं ! जिसे हम 'व्यर्थ काग़ज'  'टूटी बोतलें' 'बहते कनस्तर ' या 'फटे-पुराने  कपड़े' समझते हैं ; उन्हें भी कबाड़ी खरीदता है ! वो उसका फिर-से नवीकरण  करने के लिये अथवा कच्चे माल के तौर से उनका प्रयोग करने के  लिये कारख़ाने वालों को बेच देता है ! कबाड़ख़ाने के इस   माल का लेन-देन करके मालदार बन जाता है ! इसका अर्थ तो यही होता है कि पूर्णतः  व्यर्थ *(Absolutely  Waste)* कोई भी चीज़ नहीं है ! जिन चीज़ों का उपयोग करना हम नहीं जानते, उन्हें हम 'व्यर्थ' अथवा 'वेस्ट' *(Waste)* कह देते हैं ! परन्तु उन्हें उपयोगी वस्तु बनाया जा सकता है !
                 
                         💯 ठीक इसी प्रकार , पुरूषार्थी जीवन में कई अवसर ऐसे आते हैं जब ऐसा महसूस होता है कि हानि *(Loss)* हो गई है ! परन्तु उस  हानि को भी कई गुणा लाभ में परिवर्तित करने की विधि अथवा युक्त्ति भी अपने प्रकार  की एक कला है ! मान लीजिए कि किसी को अपने व्यापार में  कुछ आर्थिक हानि हो गई और  उसके कारण उसका धन्धा ठप्प हो गया अथवा उसकी कमाई ही रूक गई , तब सम्भव हेेै कि उससे उसकी खुशी कम हो जाये , उमंग-उत्साह क्षीण हो जाये और ऐसा लगने लगे कि उसका भाग्य उँच्चा नहीं है ! परन्तु जिसे हानि को लाभ  में बदलने की कला आती होगी वो तो स्वयं भगवान में अटूट आस्था रख कर और ये सोच कर कि अब उसे विनाशी कमाई के साथ साथ अविनाशी कमाई  करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है , वो अधिक योगाभयास कर के अनमोल आध्यात्मिक अनुभवों से मालामाल हो जायेगा !
           
                         😩 मान लीजिए कि किसी के शरीर को  कोई छोटा-मोटा रोग लग गया ! अब इस बात की संभावना है कि उसको ये संक्लप आये कि वो स्वास्थ्य-जैसी अनमोल चीज़ को गँवा बैठा है और अब किसी काम के योग्य नहीं रहा है ! परन्तु जो इस कला का जानकर होगा वो ऐसे व्यर्थ संक्लप न कर के सब को समर्थ बनाने का संक्लप करेगा ! वो ये सोचेगा कि अब उसे ऐसा अवसर मिला है जब वो अधिक समय परमात्मा की स्मृति में स्थित हो सकता है, ज्ञान की गहराई में गोता लगा सकता है  और सेवा की रफ़्तार को बढ़ाने के लिये कुछ योजनाएं बना सकता है और सोच-विचार  कर सकता है ! उससे जो लोग मिलने आयेंगे, वो अपनी स्थिति और वाणी से *'आत्मिक स्वास्थय' (Spiritual Health)* की ओर आगे बढ़ा सकता है !
             
                         *🎭 ऐसे ही, मनुष्य की जब निन्दा होती है तो उसके  मन में ये संकल्प चल सकता है कि वह व्यक्त्ति उसका विरोधी   है ! परन्तु इसकी बजाय यदि वो ऐसा सोचे कि--" मैं स्वयं में ऐसा परिवर्तन लाऊँगा कि  निन्दक भी प्रशंसक बन जाये  और मैं स्वयं भी लोक-पसन्द तथा प्रभु-पसन्द बन जाऊं " तब  वो इस कला का जानकर कहलायेगा ! वास्तव में ये कला ऐसी कला है जो व्यक्त्ति को कई विषम परिस्थितयों में ही नहीं बल्कि प्रतिदिन काम में आती है ! प्रतिदिन ही मनुष्य के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब उससे किसी-न-किसी प्रकार की क्षति होती दिखती है ! यदि  वो इन विषम परिस्थितयों को  बदल कर जीवन में मोड़ ले आता है और इन परिस्थितयों को सुख का साधन बना लेता है तब  वो इस पुरूषार्थी जीवन में बहुत आगे निकल जाता है ! अतः सम्पूर्णता के लिये इस कला का अभ्यास बहुत जरूरी है !*

             *❗ पंद्रहवीं कला  ❗*

*15. हास्य एवं विनोद कला ! (The Art Of Entertainment):-* जीवन में सदा ख़ुश रहने के लिये और  दूसरों को ख़ुश रखने के लिये थोड़ी-बहुत हास्य और विनोद (मनोरज़न) की कला का आना ज़रूरी है, इससे व्यक्त्ति एक-दूसरे के नज़दीक आते हैं ! कटुता अथवा नाराज़गी को छोड़ कर हँस पड़ते हैं ! दुःख-दर्द को भूल कर एक नई-शक्त्ति का प्रवाह अपने में महसूस करते हैं और वे एक-दूसरे के साथ ताल-मेल बनाये रखना सहज महसूस करते है ! जिन व्यक्त्तियों के जीवन में केवल रूखापन हो, जो कभी भी अवसर आने पर हास्य या विनोद कला के किसी भी रंग-ढ़ग को प्रयोग करना न जानते हो , लोग उनसे उक्त्ता जाते हैं ! वे उसके प्रति आकर्षित नहीं होते और मेल-जोल को  सहज नहीं मानते बल्कि दूर-दूर रहते हैं ! इससे ऐसे व्यक्त्तियों का जन-सम्पर्क में सफलता प्राप्त नहीं होती ! लोगों के मन को जीतने की उस कला में कमी रह जाती है !
           
                         💯 हँसी और विनोद का अभिप्राय यह नहीं है कि अभद्रता तथा चंचलता और चापलूसी से बोलचाल या  व्यवहार किया जाये ! इसका ये भाव नहीं है कि इतना खिलखिलाया जाये, ज़ोरदार कहकहे लगा कर हँसा जाये कि मर्यादा की सुध-बुध न रहे और लक्ष्य तथा पुरूषार्थ की विस्मृति हो जाये ! रूहानिहत के बिना तो हँसी और विनोद समय गँवाने वाले , बाह्यमुखता में लाने वाले, वातावरण को बिगाड़ने वाले तथा देहाभिमान में लाने वाले होते हैं ! ज्ञानी और योगी को ऐसे हँसी और विनोद प्रिय नहीं होते ! बल्कि शिष्टता, सज्जनता, मर्यादा से युक्त्त हो कर अच्छे प्रकार की हँसी और विनोद के तरीके-गीत कविता, नाटक, कहानी आदि ही ठीक प्रकार के ऐसे साधन होते हैं जो अमोद, प्रमोद, विनोद भी करते हैं और मनुष्य  को घटिया प्रकार की भाव-अभिव्यक्त्ति का प्रदर्शन नहीं करते !
             
                         *💯 इस प्रयोजन से व्यक्त्ति ये महसूस करता है कि वो कोई गीत सुन ले, कोई नाटक देख ले, उसे हँसी की कोई बात सुन दी जाये जिससे कि वो ज्ञान की गम्भीरता से ऊपर जा कर थोड़ा हल्कापन अनुभव करे ! अतः यदि किसी व्यक्त्ति को ऐसी कला आती हो कि वो ज्ञान-युक्त्त हँसी की कोई बात सुना दे जिससे गम्भीर समस्या सामने होने पर भी सुनने वाला खिलखिला उठे, वो कोई ऐसी कविता सुना दे जिससे कि व्यक्त्ति के मन में एक नई उमंग जाग जाये,गीत की कोई दो पंक्त्तियाँ ही ऐसे गा दे जिससे मनुष्य का मन झूम जाये और उसे ऐसा लगे कि वो यूँ व्यर्थ ही चिन्ता कर रहा है, तब इससे भी काफ़ी सेवा हो जाती है !*

            *❗ सोलहवीं कला  ❗*

*16. स्वस्थ रहने की कला ! (The Art Of Keeping Healthy) :-* ये उक्ति प्रसिद्ध है कि, " यदि मनुष्य का स्वास्थ्य गया तो मानिये कि उसका कुछ महत्त्वपूर्ण नुकसान हुआ ! " स्वास्थ्य के बिना मनुष्य की शारीरिक कार्य-क्षमता में अन्तर आता है और उसका ध्यान  महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक सेवाओं की ओर ले जाने तथा लगाने  की बजाय शरीर की और खिंचवाती है ! अतः स्वास्थ्य एक अनमोल निधि है ! परन्तु दवाइयों के आधार पर शरीर चलाते रहना स्वास्थ्य नहीं  है ! वास्तविक स्वास्थ्य वो है कि स्वाभाविक एंव प्रकृितक रीति से निर्विध्न रूप से स्वचिलत हो ! उसके लिये जीवन में कई प्रकार की धारणाओ की आवश्यकता है ! यद्यपि पिछले अनेक जन्मों के कर्मों के हिसाब-किताब के चुक्त्ता होने के लिये भी अस्वस्थता मनुष्य को आ घेरती है तो जीवन में कुछ एक महत्त्वपूर्ण नियमों के पालन करने से भी काफ़ी हद तक स्वास्थ्य बना रह सकता है !
         
                          उदाहरण के तौर पर सदा ख़ुशी में रहना स्वास्थ्य के लिये बहुत लाभदायक है ! कहा गया कि ख़शी-जैसी खुराक नहीं ! और चिन्ता को चिता समान माना गया है ! भय भी मनुष्य को मृत्यु की ओर ले जाने वाला विकार है जो उसके ह्रदय, मस्तिष्क और सारे नर्व्हस सिस्टम को झकझोर देता है ! चिन्ता और भय से भोजन भी शरीर में विकृत रूप ले लेता है और विषक्त हो कर शरीर को रूग्न अवस्था में ले जाता है ! इसके विपरीत कोई मनुष्य दिनोंदिन ह्रष्ट-पुष्ट होता जाता है, मानो कि वो कोई पुष्टिवर्धक पदार्थ *(Tonics)* खाता हो ! कहा गया है कि यदि मनुष्य के भोजन में  सब विटामिन हों परन्तु यदि ख़ुशी रूपी विटामिन न हो तो शरीर के विकास तथा स्वास्थ्य में कमी आती है !
         
                          जिसे औरों की दुआयें मिलती हों,उसे भी स्वास्थ्य बनाये रखने में सहयोग मिलता है ! लोगों की दुआवों का अपना एक प्रभाव मंड़ल होता है ! उस प्रभाव मंड़ल से घिरा हुआ व्यक्त्ति रोगों के आक्रमणों से दुःखी नहीं होता बल्कि यदि रोग हो भी जायें तो  वो उन्हें सहज रीति से झेल लेता है ! दुआयें तो उसको ही मिलती हैं जो  लोगों का भला करता है, उनके भले की बात सोचता हो और भलाई करने में रात-दिन लगा रहता है ! वो उनके मन को इतना जीत लेता है कि वे अपने अन्तर्मन से सूक्ष्म सहायता करते हैं और रोग-शमन शक्त्ति में अपनी शक्त्ति भी प्रदान करते हैं !
       
                          परन्तु मनुष्य सदा ख़ुश तब रह सकता है जब वो निम्न-लिखित बातों का ध्यान रखेगा ! (१) ईश्वर में निश्चय-बुद्धि हो ! (२) भावी  में विश्वास रखता हो ! कर्मों की गति को समझता हो (३) सात्त्विक  भोजन, उसमें मांस-मदिरा, प्याज़, लहसुन, तम्बाकू, उत्तेजक पदार्थ, अनेक प्रकार के तेज़ मिर्च-मिसाले इत्यादि नहीं होते ! (४) जो बासी, भारी, देर से हज़म होने वाला न खाता हो और ज़रूरत से ज़्यादा मात्रा में नहीं लेता हो और जो पदार्थ शरीर के अनुकूल न हो उसे भी वो नहीं लेता हो !
         
                         * नकारात्मक विचार में रहने वाला व्यक्त्ति अपने ही स्वास्थ्य समय को बिगाड़ देता है वो (१) दूसरों के  जीवन में त्रुटियाँ देखने वाला होता है ! (२) हरके चीज़ में कमी कमज़ोरी देख कर अपने भाग्य कोसने वाला होता है ! (३) दूसरों के प्रति कटु दृष्टि रखने वाला व्यक्त्ति और सदा रूष्ट एवं असन्तुष्ट रहने वाला व्यक्त्ति होता है और जो सकारात्मक चिन्तन में प्रवृत हो ,वो सोचता है ! (१) मेरा कल्याण होने वाला है ! (२) मेरा हाथ प्रभु के हाथ में है ; इसलिए कोई मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता है ! (३) कि जो होगा सो देखा जायेगा, मुझे कर्तव्य तो अच्छा करना है और दूसरों की कमियों कमज़ोरियों को न देख कर मुझे अपने लक्ष्य की और बढ़ना है।*

Comments

Popular posts from this blog

શિક્ષક દિન વિશેષ...

દિન વિશેષ...

પ્રોફેશનલ ડેવલપમેન્ટની તક...